Wednesday, 27 September 2017

आज्ञा

काट दो वह ध्वजा
जो हवा के विपरीत उड़े 
राजा का आदेश है 
दिन को रात 
और रात को दिन कहा जाए
विचारों को डिब्बे में बन्द कर
सरकार को जमा कर दो
घरों में रोशनी ना की जाए
सूर्य पर केवल शासन का अधिकार है
उन लोगों की हत्या होगी
जो स्वयं को स्वतंत्र कहते हैं
लोकतंत्र का जनाजा उठेगा
और चिता जलाएगी स्वयं प्रजा
यह दौर उड़ने का नहीं
अनुसरण का है
आज्ञा का पालन किया जाए

Friday, 14 April 2017

Betiyon Ke nam ek Sandesh

भीगी पलकों से तेरी राह तके हैं सारे
लौट के घर को आजा तेरा आँगन तुझे पुकारे

मैंने सदियों की इज्जत पल भर में तभी गंवाई
जब दुनिया ने देखी मेरी सूनी पड़ी कलाई
बिन तेरे इन त्यौहारों पर आरती कौन उतारे
लौट के घर को आजा तेरा आँगन तुझे पुकारे



तेरे बिन घर सूना है सुन माता की परछाई
तूने बापू को हाथों से रोटी नहीं खिलाई
तेरी एक नज़र की खातिर तरसे है हम सारे
लौट के घर को आजा तेरा आँगन तुझे पुकारे

कोई दु :शासन न होगा,होगा दाग न गहरा
बहना तेरी लाज बचाने,दूँगा पक्का पहरा
तू ही न होगी तो फिर इस घर को कौन संवारे
लौट के घर को आजा तेरा आँगन तुझे पुकारे

प्रत्यंचा की टंकार उठे और हो पूरा संहार
मानव का भ्रम दूर करो तुम लो दुर्गा अवतार
अर्पित हैं तेरे चरणों में सारे शस्त्र हमारे
लौट के घर को आजा तेरा आँगन तुझे पुकारे



खुली हवा में रखा हुआ पेट्रोल
जैसे उड़ने के बाद भी
छोड़ जाता है अपनी खुशबू
दिलाता है याद अपने होने की
वैसे ही
तुम भी छोड़ जाना 
अपना एक हिस्सा मेरे भीतर
पिघलाना मुझे अंदर से
निकलकर बाहर आना
आँसुओं के साथ
दिलाना याद अपने होने की
छोड़ जाना अपनी खुशबू
अखबार के पन्नों में
सुबह की चाय में
घर की दीवारों में

और मुझमें

विश्राम



रुकना राही का काम नहीं
 चलो! अभी विश्राम नहीं

 मंजिल अब खड़ी पुकार रही
 बढ़ते जाओ, वह दूर सही
 जीवन है पग पग चलने में
 गिरने में और संभलने में
 जो भाग गया रणभूमि से
 अर्जुन फिर उसका नाम नहीं
 चलो!अभी विश्राम नहीं

 घर से आए तुम दूर निकल
 लेकर पैरों मे गति प्रबल
 हारा जो राहों से लड़कर
 मरकर वह राही रहा अमर
 तुम हार मान क्यों बैठ गए
 यह तो जीवन की शाम नहीं
 चलो! अभी विश्राम नहीं

Thursday, 13 April 2017

भाषा का अन्त


भाषा की मृत्यु हो गई
इतिहास के पुष्पों से दी गई श्रद्धांजलि
दर्शाने उसका महान जीवन
वर्तमान था कफ़न
और भविष्य उसकी चिता
जिसके गर्भ में उसका अस्तित्व
था मात्र इतिहास की राख जैसा
जब उठी अर्थी
तो ना कोई चीख थी
ना आँसू बहाने वाले
थी तो बस कुछ पल की शान्ति
एक नये युग की शुरुआत
और जन्म किसी नई भाषा का

आज्ञा

काट दो वह ध्वजा जो हवा के विपरीत उड़े  राजा का आदेश है  दिन को रात  और रात को दिन कहा जाए विचारों को डिब्बे में बन्द कर सरकार को जमा कर...